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Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti devi were living

Thursday, February 20, 2014

अमरकांत जी के अवसान के बहाने बची हुई पृथ्वी की शोकगाथा

अमरकांत जी के अवसान के बहाने बची हुई पृथ्वी की शोकगाथा

पलाश विश्वास

एक जरुरी नोटः आज स‌ुबह पुराने मित्र उर्मिलेश के फोन स‌े नींद खुली।मुझे स‌्मृतिभ्रंश की वजह स‌े इस आलेख में तथ्यात्मक गलतियों की आशंका ज्यादा थीं।


आज स‌ुबह दुबारा इसके टुकड़े मोबाइल पाठकों के लिए फेसबुक पर दर्ज कराते हुए छिटपुट गलतियां नजर भी आयीं। यथासंभव दुरुस्त करके यह आलेख कुछ देर में रीपोस्ट करने वाला हूं।


आपकी नजर में कोई गलती नजर आयें या कोई जरुरी बात छूटती नजर आये तो तुरंत मुझे 09903717833 पर  पोन करके या मेरी टाइम लाइन पर स‌ूचित कर दें।


आपको महत्वपूर्ण लगे या नहीं,यह मसला बहुत अहम है।देश जोड़ने में बाधक जो स‌ाहित्यिक स‌ांस्कृतिक परिदृश्य है,हम उसपर स‌ंवाद स‌बसे पहले जरुरी ही नहीं,अनिवार्य मानते हैं।


कोई जरुरी नहीं कि हम स‌ही हों।हम अगर गलत है तो आप हमें कृपया दुरुस्त कर दें।


उर्मिलेश ने लिंक पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि पलाश ने बहुत अच्छा लिखा है।हम अपनी स‌ीमाएं जानते हैं।हम जानते हैं कि इस मुद्दे पर मुझसे बहुत बेहतर उर्मिलेश लिख सकते हैं।मंगलेश दा और वीरेनदा से लेकर हिंदी में अनेक लोग हैं जो यकीनन हमसे बेहतर लिख सकते हैं।


तेभागा की वजह स‌े भूमिगत मेरे पिता किशोरवय में स‌न 1943 स‌े 45 के बीच कोलकाता भाग आये थे पूर्वी बंगाल के जैशोर की गृहभूमि स‌े।


तब वे उत्तर 24 परगना के एक स‌िनेमाहाल में लोगों को स‌ीट पर बैठाने का काम करते थे। 1949 तक जबतक पूरा परिवार विभाजन के बाद इसपार नहीं आया, वे यही काम करते रहे।


पूरा परिवार आ गया तो वे शरणार्थी आंदोलन में कूद पड़े।


अपने कामरेडों स‌े उनकी इसलिए ठन गयी कि कम्युनिस्ट पार्टी शरणार्थियों को बंगाल स‌े बाहर दंडकारण्य और अंडमान भेजने के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे,पर जोगेंद्र नाथ मंडल के स‌हयोगी पुलिनबाबू शरमार्थी नेता वीरेंद्र कृष्ण विश्वास की तरह शरणार्थियों के लिए होमलैंड चाहते थे और उनके नजरिये से  यह होम लैंड दंडकारण्य और अंडमान में बन स‌कता था,जिसे बनने स‌े कामरेडों ने रोक दिया।


पिता का स‌ाहित्य और फिल्म के प्रति अगाध प्रेम था।सिर्फ अपने और हमारे लिए स‌ाहित्य खरीदने के लिए वे हर स‌ाल नैनीताल स‌े कोलकाता आते जाते रहे थे।


मैं कक्षा एक में था तब तराई के बाघबहुल जंगल पार रुद्रपुर में मुझे साईकिल पर बिठाकर सिब्बल सिनेमा हाल में इवनिंग शो में फूल और पत्थर दिखाने ले गये थे।


नैनीताल में जब मैं पढ़ रहा था,तो जब भी वे आते हर दफा वे मुझे फिल्में जरुर दिखाते थे।


दिल्ली में 1974 में जब वे इंदिरा गांधी से मिलने मुझे नैनीताल से बुलाया तब भी वे फुरसत में मुझे फिल्म दिखाते रहे।


अपढ़ पिता की साहित्य और फिल्म के प्रति जो रुचि थी,उसने उन्हें जुनून के हद तक जनप्रतिबद्ध बना दिया था और जीवन दृष्टि दी थी।जनपदों की ताकत में उनकी घनघोर आस्था थी।


उर्मिलेश ने मुझसे फोन पर कहा कि जनपद साहित्य से तुम क्या कहना चाहते हो।


दुर्भाग्य से हिंदी में ही जनपद साहित्य और बोलियों में लिखे साहित्य को आंचलिक बताकर अंडररेट करने का रिवाज है।विश्वसाहित्य में अन्यत्र ऐसा नहीं है।


थामस हार्डी मूलतः जनपदों के लिए ही लिख रहे थे। शोलोखव की कुछ भी लिखा दोन नदी के प्रवाह के बिना पूरा नहीं होता।विक्टर ह्यूगो की क्लासिक रचनाओं में आंचलिकता भरपूर है।


अंग्रेजी साहित्य ने तो विश्वभर के जनपदों को आत्मसात किया हुआ है,स्काटिश,आईरिश बोलियों के अलावा।


बांग्ला में ताराशंकर बंद्योपाध्याय का समूचा लेखन लाल माटी इलाके का है तो विभूति भूषण विशुद्ध आरण्यक हैं।


इलियस और दूसरे बांग्लादेशी साहित्यकार हाल फिलहाल की सेलिना हुसैन जनपदों की बोलियों में ठाठ से लिख रही हैं।


लेकिन हमारे यहां फणीश्वर नाथ रेणु और शैलेश मटियानी जैसे साहित्यकार आंचलिक साहित्यकार कहलाते हैं।


भाषा में कोई भी अपनी बोलियां डालें या अपनी माटी की सुगंध से सराबोर कर दें रचनाकर्म.स्त्री ,आदिवासी,दलित,पिछड़ों की बात कहें तो महानगरीय वर्चस्व उसे कोई न कोई लेबेल लगाकर मुख्यधारा से बाहर हाशिये पर धकेल देती है।


अमृत लाल नागर जैसे कथाकार हिंदी दुनिया के लिए महज किस्सागो हैं।जबकि अन्य भाषाओं के कमतर लेखन को हम क्लासिक कालजयी तमगा देने से अघाते नहीं हैं।

अपढ़ पिता से बेहतर साहित्य दृष्टि मेरी है नहीं।लेकिन जीवन दृष्टि के लिए सटीक इतिहास बोध,अर्थ व्यवस्था की समझ, साहित्य और दृश्य माध्यम में गहरी पैठ हम अनिवार्य मानते हैं।


हम मानते हैं कि साहित्य,कला और सिनेमा का मौलिक सौंदर्यबोध की जमीन दरअसल जनपद है,महानगर नहीं।


हिंदी के पतन का कारण अगर दिल्ली है तो पश्चिमबंगीय बांग्ला का पतन कोलकाता वर्चस्व से हुआ।


बांग्लादेश में ढाका एक मात्र साहित्य संस्कृति केंद्र नहीं है।मराठी का केंद्र मुंबई नहीं है और न तमिल चेन्नै में केंद्रीकृत है। मदुरै,तिरुचि और तंजावुर वहां साहित्य के विकेंद्रित केंद्र हैं।


जहां केंद्रीयवर्चस्व का शिकार नहीं है भाषा और साहित्य,वही भाषा जनभाषा है और साहित्य आम जनता का साहित्य,जिसके लिए किसी मेले ठेले की जरुरत होती नहीं है।

राजनीति सत्ता दिला सकती है,लेकिन भाषा को जनभाषा नहीं बना सकती।हिंदी वाले यह सबक सीख लें तो बेहतर।


हमने धर्मवीर भारतीसे लेकर विभूति नारायण राय तक हिंदी में  गिरोहबंदी को सिलसिलेवार देखा है और हम तमाम लोगों का उसका शिकार होते हुए भी देखते रहे हैं।देख रहे हैं।लेकिन हमने उसकी विशद चर्चा इसलिए नहीं की है क्योंकि इससे बहस गिरोहबंदी पर केंद्रित हो जायेगी जो बहुत से हिंदी के ग्लोबल धुरंधरों की अपार विशेषज्ञता हैं और वे तमाम माध्यमों में एक दूसरे के खिलाफ हर दिन तलवारे भांजते पाये जाते हैं।


हम अपने आकाओं के खिलाफ खुलकार लिखते रहे हैं।दंश से हम नीले नहीं होते कभी चूकि हमारी जमीन ही नीली है।भीतर से हम लाल हैं तो लहू के रंग से डर भी नहीं लगता।


मित्रों, इन दिनों लघु पत्रिकाओं में भी मैं नहीं छपता।शसोशल मीडिया में भी हस्तक्षेप के अलावा मेरी कोई जगह नहीं है।छपने और लगने की आकांक्षा से ऐसा जाहिर है कि नहीं लिख रहा हूं।अपने सरोकारों को जनकवायद बनाने का अब्यास मेरा लेखन है। मुझे न पुस्तकें छपवानी है ,न पुस्तक मेले की आत्ममुग्ध सेल्फी कहीं पोस्ट करनी है और न इतिहास में दर्ज होने की कोई मेरी औकात है।णुझे जैसा लगता है,बहुपक्षीय संवाद के जरिये उसकी जांच पड़ताल के लिए रोजनामचा जरुर ब्लागों में दर्ज करता हूं और उसे व्यापक जनसंवाद बनाने की गरज से फेसबुक में डालता हूं।वहां भी अघाते हुए मित्रों की लंबी कतार हैं,जो बिना बताये मुझे डीफ्रेंड करते रहते हैं।जो नये मित्र मिलते हैं,उन्ही की नींद हराम करता हूं रातदिन।


पृथ्वी अगर मुक्त बाजार संस्कृति से कहीं बची है तो इलाहाबाद में।पिछले दिनों हमारे फिल्मकार मित्र राजीव कुमार ने ऐसा कहा था। दूसरे फिल्मकार मित्र और उससे ज्यादा हमारे भाई संजय जोशी से जब उनकी पुश्तैनी सोमेश्वर घाटी पर फिल्म बनाने की बात कही हमने तो दिल्ली में बस गये संजू ने भी कहा कि उसका वजूद तो इलाहाबाद में ही रचा बसा है।


मैं इलाहाबाद में 1979 में तीन महीने के लिए रहा और 1980 में दिल्ली चला गया।लेकिन इन तीन महीनों में ही इलाहाबाद के सांस्कृतिक साहित्यिक परिवार से शैलेश मटियानी जी,शेखर जोशी जी,अमरकांत जी,नरेश मेहता जी, नीलाभ, मंगलेश, वीरेनदा,रामजी राय,भैरव प्रसाद गुप्त और मार्कंडेय जी की अंतरंग आत्मीयता से जुड़ गया था।


अमरकांत जी और भैरव प्रसाद गुप्त जी की वजह से माया प्रकाशन के लिए अनुवाद और मंगलेश के सौजन्य से अमृत प्रभात में लेखन मेरे इलाहाबाद ठहरने का एकमात्र जरिया था।


मैं शेखर जोशी जी के 100 लूकर गंज स्थित आवास में रहा तो इलाहाबाद के तमाम साहित्यकारों से गाहे बगाहे मुलाकात हो जाती थी।


भैरव जी,अमरकांत जी और मार्कंडेय जी के अलावा शैलेश जी के घर आना जाना लगा रहता था।यह आत्मीयता हमें छात्र जीवन में ही आदरणीय अमृत लाल नागर और विष्णु प्रभाकर जी से नसीब हुई तो बाद में बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी से।


ये तमाम लोग और उनका साहित्य जनपद साहित्य की धरोहर है,जिसका नामोनिशान तक अब कहीं नहीं है।


त्रिलोचन जी के निधन पर हमने लिखा था कि जनपद के आखिरी महायोद्धा का निधन हो गया।तबभी अमरकांत जी थे।


दूधनाथ सिंह की भी इस दुनिया में खास भूमिका रही है।इनके अलावा उपेंद्र नाथ अश्क और उनके सुपुत्र नीलाभ, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल और डा. स‌ुनील श्रीवास्तव भी लूकरगंज में ही बसते थे।


इलाहाबाद विश्विद्यालय में हिंदी में डा.रघुवंश और अंग्रेजी में डा. विजयदेव नारायण साही और डा. मानस मुकुल दास थे।अमृत प्रभात में मंगलेश को केंद्रित एक युवा साहित्यिक पत्रकार दुनिया अलग थी।


अमृत राय की पत्रिका कहानी और महादेवी वर्मा की हिंदुस्तानी तब भी छप रही थीं।


शैलेश जी विकल्प निकाल रहे थे तो मार्कंडेय जी कथा।


दरअसल इलाहाबाद के साहित्यकारों को हमने नैनीताल में विकल्प के माध्यम से ही जाना था।अमरकांत जी की कहानी,शायद जिंदगी और जोंक पहलीबार वहीं पढ़ा था।शायद  कहानी दूसरी हो।मैं अंग्रेजी साहित्य का छात्र था ,हिंदी का नहीं।हमने जो पढ़ा लिखा छात्र जीवन में,वह या तो नैनीताल समाचार की टीम की वजह से,मोहन के कारण या अपने गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के अनुशासनबद्ध दिग्दरशन के तहत।


आज जो लिख रहा हूं अमरकांत जी के बारे में, यह भी अरसे से स्थगित लेखन है। मैं न साहित्यकार हूं और न आलोचक।साहित्य के क्षेत्र में दुस्साहसिक हस्तक्षेप हमारी औकात से बाहर है।


लेकिन इलाहाबादी साहित्य केंद्र के नयी दिल्ली और भोपाल स्थानांतरित हो जाने के बावजूद जो लोग रच रहे थे, जिनमें हमारे इलाहाबाद प्रवास के दौरान तब भी जीवित महादेवी वर्मा भी शामिल हैं,उनके बारे में मैं कायदे से अब तक लिख ही नहीं पाया।

शैलेश मटियानी के रचना संसार  पर लिखा जाना था,नही हो सका।


शेखर जी के परिवार में होने के बावजूद उनके रचनाक्रम पर अब तक लिखा नहीं गया।


हम अमृतलाल नागर और विष्णु प्रभाकर जी के साहित्य पर भी लिखना चाहते थे,जो हो न सका।


दरअसल इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली जाने के फैसले ने ही हमें साहित्य की दुनिया से हमेशा के लिए बेदखल कर गया। हम पत्रकारिता के हो गये।


फौरी मुद्दे हमारे लिए ज्यादा अहम है और साहित्य के लिए अब हमारी कोई प्राथमिकता बची ही नहीं है।


अंतरिम बजट से लेकर तेलांगना संकट ने इलाहाबादी साहित्यिक दुनिया के भूले बसरे जनपद को याद करने के लायक न छोड़ा हमें।


वरना हम तो नैनीताल में इंटरमीडिएड के जीआईसी जमाने से कुछ और सोचते रहे हैं। मोहन कपिलेश भोज का कहना था कि नये सिरे से लिखना और रचना ज्यादा जरुरी नहीं है, बल्कि जो कचरा जमा हो गया है,उसे साफ करने के लिए हमें सफाई कर्मी बनना चाहिए।


इस महासंकल्प को हम लोग अमली जामा नहीं पहुंचा सकें।न मैं और न कपिलेश।फर्क यह है कि नौकरी से निजात पाने के बाद वह कविताएं रच रहा है और साहित्यिक दुनिया से अब हमारा कोई नाता नहीं है।


आज जो भी कुछ बहुचर्चित पुरस्कृत लिखा रचा जा रहा है,उनमें से प्रतिष्ठित ज्यादातर चमकदार हिस्सा मुक्त बाजार के हक में ही है।


साठ के दशक में स्वतंत्रता के नतीजों से हुए मोहभंग की वजह से जितने बहुआयामी साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन साठ के दशक में हुए ,अन्यत्र शायद ही हुए होंगे।


लेकिन धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, रादेंद्रयादव, मोहन राकेश,ज्ञानरंजन से लेकर नामवर सिंह,विभूति नारायण राय और केदारनाथ सिंह की बेजोड़ गिरोहबंदी की वजह से उस साहित्य का सिलसिलेवार मूल्यांकन हुआ ही नहीं।


वह गिरोहबंदी आज संक्रामक है और पार्टीबद्ध भी।


अमरकांत अब तक जी रहे थे, वह वैसे ही नहीं मालूम पड़ा जैसे नियमित काफी हाउस में बैठने वाले विष्णु प्रभाकर जी के जीने मरने से हिंदी दुनिया में कोई बड़ी हलचल नहीं हुई।


वह तो लखनऊ में धुनि जमाये बैठे,भारतीय साहित्य के शायद सबसे बड़े किस्सागो अमृतलाल नागर जी थे,जो नये पुराने से बिना भेदभाव संपर्क रखते थे और इलाहाबाद से उपेंद्रनाथ अश्क भी यही करते थे।


उनके बाद बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री के बाद विष्णु चंद्र शर्मा ने दिल्ली की सादतपुर टीम के जरिये संवाद का कोना बचाये रखा।


शलभ ने मध्य प्रदेश के विदिशा जैसे शहर से दिल्ली और भोपाल के विरुद्ध जंग जारी रखा।

कोलकाता का हिंदी केंद्र और नागपुर का मध्यभारतीय हिंदी केंद्र हिंदी दिवसों के आयोजन ,राजभाषा अभियान और हिंदी मेलों के मध्य कब विसर्जित हो गया,हिंदी वालों को पता ही नहीं चला।कोलकाता से अब दर्जनों हिंदी अखबार निकलते हैं जैसे दक्षिण बारत से भी विज्ञापनी संस्करण निकलते हैं जिनमें मुक्त बाजारी अश्लील फिल्म टीवी के अलावा साहित्य और कला के लिए कोई स्पेस ही नहीं है।


लेकिन इलाहाबाद तो नईदिल्ली और भोपाल से सत्तर के दशक में ही युद्ध हार गया और एकाधिकारवादी तत्व हिंदी में ही नहीं,पूरे भारतीय साहित्य में साहित्य अकादमी,ज्ञानपीठ, रंग बिरंगे पुरस्कारों,बाजारु पत्रिकाओं और सरकारी खरीद से चलने वाले प्रकाशन संस्थानों के जरिये छा गये।


आलोचना बाकायदा मार्केटिंग हो गयी।जयपुर साहित्य उत्सव के जरिये अर्थशास्त्री,समाजशास्त्री और राजनेता भाषाओं का श्राद्धकर्म कर्मकांडी स्थायीभाव के साथ करते हुए वसंत विलाप साध रहे हैं।


साहित्य भी बाजार के माफिक प्रायोजित किया जाने लगा।हिंदी,मराठी और बांग्ला में जनपद साहित्य सिरे से गायब हो गये और जनपदों की आवाज बुलंद करने वाले लोग भी खो गये।


अब भी जनपद इतिहास पर गंभीर काम कर रहे सुधीर विद्यार्थी और अनवर सुहैल जैसे लोग बरेली और मिर्जापुर जैसे कस्बों से साठ के दशक के जनपदों की याद दिलाते हैं।दूसरे लोग भी हैं। खासकर मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,झारखंड और राजस्तान में उनकी संख्या कोई कम नहीं है।लेकिन साहित्य के दिल्ली दरबार तक उनकी दस्तक पहुंचती ही नहीं है।


बांग्ला में यह फर्क सीधे दिखता है जब साठ के दशक के सुनील गंगोपाध्याय मृत्यु के बाद अब भी बांग्ला साहित्य और संस्कृति पर राज कर रहे हैं। माणिक बंद्योपाध्याय, समरेश बसु और ताराशंकर बंदोपाध्याय के अलावा तमाम पीढ़ियां गायब हो गयी और बांग्ला साहित्य और संस्कृति में एकमेव कोलकातावर्चस्व के अलावा कोई जनपद नहीं है।हिंदी में डिटो वही हुआ। हो रहा है।


मराठी में थोड़ी बेहतर हालत है क्योंकि वहा मुंबई के अर्थ जागतिक वर्चस्व के बावजूद पुणे और नागपुर का वजूद बना हुआ है। शोलापुर कोल्हापुर की आवाजें सुनायी पड़ती हैं तो मराठी संसार में कर्नाटकी गुलबर्गा से लेकर मुक्तिबोध के राजनंद गांव समेत मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात,राजस्थान, गोवा तक की मराठी खुशबू है।


जनपदों के सिंहद्वार से ही कोई अचरज नहीं कि मराठी में ही दया पवार और नामदेव धसाल की अगुवाई में भारतीय दलित साहित्य का महाविस्फोट हो सका।


हिंदी में दलित साहित्य का विस्तार उस तरह भी नहीं हो सका जैसे पंजाबी में।


बांग्ला में तो खैर जनपदीय साहित्यिक भूगोल के सिरे से गायब हो जाने के कारण सही मायने में दलित साहित्य का कोई वजूद है ही नहीं। बांग्ला में तो दया पवार,नामदेव धंसाल,ओमप्रकाश बाल्मीकि और कंवल भारती जैसे नाम बाकायदा निषिद्ध और प्रतिबंधित है।दलित,बहुजन मूलनिवासी शब्दों का बहिष्कार है। हम क्या कहें,कामरेड रेज्जाक अली  मोल्ला, नजरुल इस्लाम और अब डा. अमर्त्य सेन भी यही कह रहे हैं। विडंबना यही है कि अभूतपूर्व चामत्कारिक स्वीकारोक्तियों के बावजूद यथा स्थित बदलने के लिए कहीं कोई हलचल नहीं है।


जनपदों का महत्व जानना हो तो दक्षिण भारतीय भाषाओं में खासकर तमिल, कन्नड़ और तेलुगु के साहित्य संसार को देशना चाहिए जहां हर जनपद साहित्य और सस्कृति के स्वशासित केंद्र हैं।


ओड़िया और असमिया से लेकर मणिपुरी और डोगरी तक में यह केंद्रीयकरण और बाजारु स्वाभाव नहीं है ,न कभी था।


यह फर्क क्या है ,उसे इसतरह से समझ लें कि बिहार में बांगाल साहित्य का कभी बड़ा केंद्र रहा है।विभूति भूषण,सुबोध राय,वनफूल,सतीनाथ भादुड़ी से लेकर शरत तक का बिहार से नाता रहा है।


अब भी बिहार और झारखंड से लेकर त्रिपुरा और भारत के दूसरे राज्यों में भी बांग्ला में रचनाकर्म जारी है लेकिन कोलकतिया साहित्य उनकी नोटिस ली ही नहीं जाती।


इतना वर्चस्ववादी है बांग्ला का पश्चिमबंगीय साहित्य। दूसरी भारतीय भाषाओं की क्या कहे जहां बांग्ला जनपदों तक की कोई सुनवाई नहीं है।


इसके विपरीत बांग्लादेशी साहित्य पूरी तरह विकेंद्रित है।


जहां हर जनपद की आवाज रुप रंग रस के साथ मौजूद है।जहां हर बोली में उत्कृष्ट साहित्य लिखा जा रहा है।


जो देश भाषा के नाम पर बना जहां बांग्लाभाषा के नाम पर लाखों लोगों ने कुर्बानी दी और आज भी दे रहे हैं,वहां बांग्ला नागरिक समाज तमाम आदिवासी भाषाओं को मान्यता दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि हमारे विश्व विद्यालयों से लेकर विश्व पुस्तक मेले तक में आदिवासी भाषा और साहित्य के प्रति कोई ममत्व नहीं है।


जनपदीय साहित्य के कारण ही बंगाल में शहबाग आंदोलन संभव है क्योंकि कट्टरपंथ के विरुद्ध वहां के साहित्यकार,पत्रकार और बुद्धिजीवी जब तब न सिर्फ सड़कों पर होते हैं, न सिर्फ आंदोलन करते हैं बल्कि अपनी जान की कुर्बानी करने को तैयार होते हैं।


शायद इस महादेश के सबसे बड़े कथाकार अख्तराज्जुमान इलियस का समूचा लेखन ही जनपद साहित्य है।


भारत में जनपदों के ध्वंस,कृषिजीवी समाज,अर्थव्यवस्था,प्रकृति और पर्यावरण की हत्यारी मुक्तबाजार  की संस्कुति ही रचनात्मकता का मुख्य स्वर बन गया है ौर इसके लिए भारतीय भाषाओं के तमाम साहित्यकार,पत्रकार, शिक्षक और बुद्धिजीवी समान रुप से जिम्मेदार हैं।हम हिंदी समाज का महिमामंडन कर रहे होते हैं हिंदी समाज के लोक,मुहावरों और विरासत को तिलाजलि देते हुए। हमने हमेशा दिल्ली,मुबंई और भोपाल के तिलिस्म को तरजीह दी और जनपदों के श्वेत श्याम चित्रों का सिरे से ध्वंस कर दिया है।


राजनीति अगर इस महाविध्वंस का पहला मुरजिम है तो उस जुर्म में साहित्यिक सांस्कृतिक दुनिया के खिलाफ भी कहीं न कहीं कोई एफआईआर दर्ज होना चाहिए।


बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा है कि पढ़े लिखे लोगों ने सबसे बड़ा धोखा दिया है। मौजूदा भारतीय परिदृश्य में रोज खंडित विखंडित हो रहे देश के लहूलुहान भूगोल और इतिहास के हर प्रसंग,हर संदर्भ और हर मुद्दे के सिलसिले में यह सबसे नंगा सच है,जिसका समाना हमें करना ही चाहिए।


हमारे मित्र आनंद तेलतुंबड़े से आईआईटी खड़गपुर में हैं और उनसे निरंतर संवाद जारी है।इसी संवाद में हम दोनों में इस मुद्दे पर सहमति हो गयी कि पढ़े लिखे संपन्न लोगों ने नाम और ख्याति के लिए अंधाधुंध जिस जनविरोधी साहित्य का निर्माण किया और मीडिया में जो मिथ्या भ्रामक सूचनाएं दी जाती हैं,और उनका जो असर है, उसके चलते देश जोड़ो असंभव है और देश बेचो ब्रिगेड इतना निरंकुश है और इस तरह के भ्रामक रचनाकर्म और सूचनाओं से रोज ब रोज मजबूत हो रहा है जनसंहारक तिलिस्म।


नयी शुरुआत से पहले इस ट्रैश डिब्बे की सफाई और साहित्य सांस्कतिक संदर्भो,विधाओं और माध्यमों को, सौंदर्यशास्तत्र को वाइरस मुक्त करने के लिए रिफर्मैट करना अहम कार्यभार है।


सहित्य में जनपदों के सफाये की शोकगाथा इलाहाबाद के ध्वंस के साथ शुरु हुई। अमरकांत जी का अवसान उनके कृतित्व व्यक्तित्व की विवेचना से अधिक इसी सच के सिलसिले में ज्यादा प्रासगिक है।


हिंदी का बाजारवाद का मतलब यह था कि प्रेमचंद के बजाय हिंदी दुनिया शरत चंद्र को पलक पांवड़े पर बैठाये रखा,निराला और हजारी प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन रवींद्र छाया में होता रहा और अमृत लाल नागर को ताराशंकर के मुकाबले कोई भाव नहीं दिया गया।


बल्कि हुआ यह भी बांग्ला में जिन दो बड़े बाजारु साहित्यकार शंकर और विमल मित्र को गंभीर साहित्य कभी नहीं माना गया, उन्हीं को हिंदीवालों ने सर माथे पर बैठाये रखा जबकि महाश्वेतादी और नवारुण भट्टाचार्य के अलावा हिंदी साहित्य की चर्चा तक करने वाला बंगाल में कोई तीसरा महत्वपूर्ण नाम है ही नहीं।


अमरकांत जी के अवसान  के बाद दरअसल ध्वस्त जनपदों की यह शोकगाथा है,जिसमें इलाहाबाद का अवसान सबसे पहले हुआ।काशी विद्यापीठ के बहाने काशी फिरभी जीने का आभास देती रही है।इसी वजह से हिंदी दुनिया को अमरकांत जी के अवसान के बाद साठ दशक के बाद शायद पहलीबार मालूम चला कि वे जी रहे थे और लिख भी रहे थे।


अमरकांत जी पर लिखना विलंबित हुआ और लिख भी तब रहा हूं जबकि आज शाम ही दिल्ली से तहेरे भाई अरुण ने फोन पर सूचना दी की हमारी सबसे बड़ी दीदी मीरा दीदी के दूसरे बेटे सुशांत का निधन भुवाली सेनेटोरियम में हो गया और अभी वे लोग अस्पताल नहीं पहुंच पाये हैं।


बचपन में हमारी अभिभावक मीरा दीदी को फोन लगाया तो संगीता सुबक रही थीं।

उसके विवाह की सूचना देते हुए उसके पिता हमारे सबसे बड़े भांजे शेखर ने फोन पर धमकी दी थी कि अबके नहीं आये तो फिर कभी मुलाकात नहीं होगी।


बेटी के विवाह के तीन महीने बीतते न बीतते सर्दी की एकरात बिजनौर दिल्ली रोड पर मोटरसाईकिल से जाते हुए सुनसान राजमार्ग पर ट्रक ने उसे कुचल दिया और समय पर इलाज न होने की वजह से उसका निधन  हो गया।


संगीता को अपने चाचा के निधन पर अपने पिता की भी याद आयी होगी।


हमें तो अपने भांजे की मृत्यु को शोक इलाहाबाद के शोक में स्थानांतरित नजर आ रहा है।


पद्दोलोचन ने दो दिन  पहले ही फोन पर आगाह कर दिया था। इसलिए इस मौत को आकस्मिक भी नहीं कह सकते।


आज ही पहाड़ से तमाम लोग भास्कर उप्रेती के साथ घर आये थे। आज ही राजेंद्र धस्माना से भाई की लंबी बात हुई है। जनपदों की आवाजों के मध्य हम बंद गली में कैद हैं और उन आवाजों के जवाब में कुछ कहने की हालत में भी नहीं हैं।


पद्दो ने याद दिलाया कि करीब पैंतीस साल पहले प्रकाश झा ने गोविंद बल्लभ पंत पर दूरदर्शन के लिए फिल्म बनायी थी,जिसकी शूटिंग बसंतीपुर में भी हुई।पिताजी हमेशा की तरह बाहर थे,लेकिन उस फिल्म में बंसंतीपुर के लोग और हमारे ताउजी भी थे।


जनपद हमारे मध्य हैं लेकिन हम जनपदों में होने का सच खारिज करते रहेते हैं जैसे हम खारिज करते जा रहे हैं जनपद और अपना वजूद।

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BBC Hindi

प्रेमचंद की परंपरा के हिंदी कहानीकार अमरकांत का आज निधन हो गया. उन्हें ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, सोवियत लैंड नेहरू और व्यास सम्मान जैसे कई पुरस्कार मिले थे. पढ़िए पूरी ख़बर

http://bbc.in/1gb7LcB

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निधन 15 फरवरी पर यही होगी सच्ची श्रद्धांजलि

अगर आप सच में हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार अमरकांत को हमेशा के लिए अपना बनाए रखना चाहते हैं तो एक उनकी एक कालजयी कहानी 'डिप्टी कलेक्टरी' जरूर पढ़िए। बेरोजगारों के फ़ौज वाले इस देश में बेटों के कन्धों पर बेहतरी के सपने लादकर मां -बाप कैसे सवार होते हैं और उनमें से ज्यादातर की नियति क्या होती है, उसका विवरण पढ़ आप खुद कहेंगे कि सच में अमरकांत सदी के साहित्यकार हैं.…


डिप्टी कलेक्टरी

शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी गायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने रसोईघर की ओर देखा। उनकी पत्नी जमुना, चैके के पास पीढ़े पर बैठी होंठ-पर-होंठ दबाये मुँह फुलाए तरकारी काट रही थी। वह मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपनी पत्नी के पास चले गए। उनके मुख पर असाधारण संतोष, विश्वास एवं उत्साह का भाव अंकित था। एक घंटे पूर्व ऐसी बात नही थी।


बात इस प्रकार आरंभ हुई। शकलदीप बाबू सबेरे दातौन-कुल्ला करने के बाद अपने कमरे में बैठे ही थे कि जमुना ने एक तश्तरी में दो जलेबियाँ नाश्ते के लिए सामने रख दीं। वह बिना कुछ बोले जलपान करने लगे।

जमुना पहले तो एक-आध मिनट चुप रही। फिर पति के मुख की ओर उड़ती नज़र से देखने के बाद उसने बात छेड़ी, "दो-तीन दिन से बबुआ बहुत उदास रहते हैं।"


"क्या?" सिर उठाकर शकलदीप बाबू ने पूछा और उनकी भौंहे तन गईं। जमुना ने व्यर्थ में मुस्कराते हुए कहा, "कल बोले, इस साल डिप्टी-कलक्टरी की बहुत-सी जगहें हैं, पर बाबूजी से कहते डर लगता है। कह रहे थे, दो-चार दिन में फीस भेजने की तारीख बीत जाएगी।"


शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का नारायण, घर में बबुआ के नाम से ही पुकारा जाता था। उम्र उसकी लगभग 24 वर्ष की थी। पिछले तीन-चार साल से बहुत-सी परीक्षाओं में बैठने, एम०एल०ए० लोगों के दरवाजों के चक्कर लगाने तथा और भी उल्टे-सीधे फन इस्तेमाल करने के बावजूद उसको अब तक कोई नौकरी नहीं मिल सकी थी। दो बार डिप्टी-कलक्टरी के इम्तहान में भी वह बैठ चुका था, पर दुर्भाग्य! अब एक अवसर उसे और मिलना था, जिसको वह छोड़ना न चाहता था, और उसे विश्वास था कि चूँकि जगहें काफी हैं और वह अबकी जी-जान से परिश्रम करेगा, इसलिए बहुत संभव है कि वह ले लिया जाए।


शकलदीप बाबू मुख्तार थे। लेकिन इधर डेढ़-दो साल से मुख्तारी की गाड़ी उनके चलाए न चलती थी। बुढ़ौती के कारण अब उनकी आवाज़ में न वह तड़प रह गई थी, न शरीर में वह ताकत और न चाल में वह अकड़, इसलिए मुवक्किल उनके यहाँ कम ही पहुँचते। कुछ तो आकर भी भड़क जाते। इस हालत में वह राम का नाम लेकर कचहरी जाते, अक्सर कुछ पा जाते, जिससे दोनों जून चौका-चूल्हा चल जाता।


जमुना की बात सुनकर वह एकदम बिगड़ गए। क्रोध से उनका मुँह विकृत हो गया और वह सिर को झटकते हुए, कटाह कुकुर की तरह बोले, "तो मैं क्या करूँ? मैं तो हैरान-परेशान हो गया हूँ। तुम लोग मेरी जान लेने पर तुले हुए हो। साफ-साफ सुन लो, मैं तीन बार कहता हूँ, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा।"

जमुना कुछ न बोली, क्योंकि वह जानती थी कि पति का क्रोध करना स्वाभाविक है।


शकलदीप बाबू एक-दो क्षण चुप रहे, फिर दाएँ हाथ को ऊपर-नीचे नचाते हुए बोले, "फिर इसकी गारंटी ही क्या है कि इस दफ़े बाबू साहब ले ही लिए जाएँगे? मामूली ए०जी० ऑफिस की क्लर्की में तो पूछे नहीं गए, डिप्टी-कलक्टरी में कौन पूछेगा? आप में क्या खूबी है, साहब कि आप डिप्टी-कलक्टर हो ही जाएँगे? थर्ड क्लास बी०ए० आप हैं, चौबीसों घंटे मटरगश्ती आप करते हैं, दिन-रात सिगरेट आप फूँकते हैं। आप में कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं? बड़े-बड़े बह गए, गदहा पूछे कितना पानी! फिर करम-करम की बात होती है। भाई, समझ लो, तुम्हारे करम में नौकरी लिखी ही नहीं। अरे हाँ, अगर सभी कुकुर काशी ही सेवेंगे तो हँडिया कौन चाटेगा? डिप्टी-कलक्टरी, डिप्टी-कलक्टरी! सच पूछो, तो डिप्टी-कलक्टरी नाम से मुझे घृणा हो गई है!"

और होंठ बिचक गए।


जमुना ने अब मृदु स्वर में उनके कथन का प्रतिवाद किया, "ऐसी कुभाषा मुँह से नहीं निकालनी चाहिए। हमारे लड़के में दोष ही कौन-सा है? लाखों में एक है। सब्र की सौ धार, मेरा तो दिल कहता है इस बार बबुआ ज़रूर ले लिए जाएँगे। फिर पहली भूख-प्यास का लड़का है, माँ-बाप का सुख तो जानता ही नहीं। इतना भी नहीं होगा, तो उसका दिल टूट जाएगा। यों ही न मालूम क्यों हमेशा उदास रहता है, ठीक से खाता-पीता नहीं, ठीक से बोलता नहीं, पहले की तरह गाता-गुनगुनाता नहीं। न मालूम मेरे लाड़ले को क्या हो गया है।" अंत में उसका गला भर आया और वह दूसरी ओर मुँह करके आँखों में आए आँसुओं को रोकने का प्रयास करने लगी।


जमुना को रोते हुए देखकर शकलदीप बाबू आपे से बाहर हो गए। क्रोध तथा व्यंग से मुँह चिढ़ाते हुए बोले, "लड़का है तो लेकर चाटो! सारी खुराफ़ात की जड़ तुम ही हो, और कोई नहीं! तुम मुझे ज़िंदा रहने देना नहीं चाहतीं, जिस दिन मेरी जान निकलेगी, तुम्हारी छाती ठंडी होगी!" वह हाँफ़ने लगे। उन्होंने जमुना पर निर्दयतापूर्वक ऐसा जबरदस्त आरोप किया था, जिसे वह सह न सकी। रोती हुई बोली, "अच्छी बात है, अगर मैं सारी खुराफ़ात की जड़ हूँ तो मैं कमीनी की बच्ची, जो आज से कोई बात..." रुलाई के मारे वह आगे न बोल सकी और तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई।


शकलदीप बाबू कुछ नहीं बोले, बल्कि वहीं बैठे रहे। मुँह उनका तना हुआ था और गर्दन टेढ़ी हो गई थी। एक-आध मिनट तक उसी तरह बैठे रहने के पश्चात वह ज़मीन पर पड़े अख़बार के एक फटे-पुराने टुकड़े को उठाकर इस तल्लीनता से पढ़ने लगे, जैसे कुछ भी न हुआ हो।


लगभग पंद्रह-बीस मिनट तक वह उसी तरह पढ़ते रहे। फिर अचानक उठ खड़े हुए। उन्होंने लुंगी की तरह लिपटी धोती को खोलकर ठीक से पहन लिया और ऊपर से अपना पारसी कोट डाल लिया, जो कुछ मैला हो गया था और जिसमें दो चिप्पयाँ लगी थीं, और पुराना पंप शू पहन, हाथ में छड़ी ले, एक-दो बार खाँसकर बाहर निकल गए।


पति की बात से जमुना के हृदय को गहरा आघात पहुँचा था। शकलदीप बाबू को बाहर जाते हुए उसने देखा, पर वह कुछ नहीं बोली। वह मुँह फुलाए चुपचाप घर के अटरम-सटरम काम करती रही। और एक घंटे बाद भी जब शकलदीप बाबू बाहर से लौट उसके पास आकर खड़े हुए, तब भी वह कुछ न बोली, चुपचाप तरकारी काटती रही।


शकलदीप बाबू ने खाँसकर कहा, "सुनती हो, यह डेढ़ सौ रुपए रख लो। करीब सौ रुपए बबुआ की फीस में लगेंगे और पचास रुपए अलग रख देना, कोई और काम आ पडे।"


जमुना ने हाथ बढ़ाकर रुपए तो अवश्य ले लिए, पर अब भी कुछ नहीं बोली।


लेकिन शकलदीप बाबू अत्यधिक प्रसन्न थे और उन्होंने उत्साहपूर्ण आवाज में कहा, "सौ रुपए बबुआ को दे देना, आज ही फ़ीस भेज दें। होंगे, ज़रूर होंगे,बबुआ डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे। कोई कारण ही नहीं कि वह न लिए जाएँ। लड़के के जेहन में कोई खराबी थोड़े है। राम-राम!... नहीं, चिंता की कोई बात नहीं। नारायण जी इस बार भगवान की कृपा से डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे।"


जमुना अब भी चुप रही और रुपयों को ट्रंक में रखने के लिए उठकर अपने कमरे में चली गई।


शकलदीप बाबू अपने कमरे की ओर लौट पड़े। पर कुछ दूर जाकर फिर घूम पड़े और जिस कमरे में जमुना गई थी, उसके दरवाज़े के सामने आकर खड़े हो गए और जमुना को ट्रंक में रुपए बंद करते हुए देखते रहे। फिर बोले,"गलती किसी की नहीं। सारा दोष तो मेरा है। देखो न, मैं बाप होकर कहता हूँ कि लड़का नाकाबिल है! नहीं, नहीं, सारी खुराफ़ात की जड़ मैं ही हूँ, और कोई नहीं।"


एक-दो क्षण वह खड़े रहे, लेकिन तब भी जमुना ने कोई उत्तर नहीं दिया तो कमरे में जाकर वह अपने कपड़े उतारने लगे।


नारायण ने उसी दिन डिप्टी-कलक्टरी की फीस तथा फार्म भेज दिये।


दूसरे दिन आदत के खिलाफ प्रातःकाल ही शकलदीप बाबू की नींद उचट गई। वह हड़बड़ाकर आँखें मलते हुए उठ खड़े हुए और बाहर ओसारे में आकर चारों ओर देखने लगे। घर के सभी लोग निद्रा में निमग्न थे। सोए हुए लोगों की साँसों की आवाज और मच्छरों की भनभन सुनाई दे रही थी। चारों ओर अँधेरा था। लेकिन बाहर के कमरे से धीमी रोशनी आ रही थी। शकलदीप बाबू चौंक पड़े और पैरों को दबाए कमरे की ओर बढ़े।


उनकी उम्र पचास के ऊपर होगी। वह गोरे, नाटे और दुबले-पतले थे। उनके मुख पर अनगिनत रेखाओं का जाल बुना था और उनकी बाँहों तथा गर्दन पर चमड़े झूल रहे थे।


दरवाजे के पास पहुँचकर, उन्होंने पंजे के बल खड़े हो, होंठ दबाकर कमरे के अंदर झाँका। उनका लड़का नारायण मेज पर रखी लालटेन के सामने सिर झुकाए ध्यानपूर्वक कुछ पढ़ रहा था। शकलदीप बाबू कुछ देर तक आँखों को साश्चर्य फैलाकर अपने लड़के को देखते रहे, जैसे किसी आनंददायी रहस्य का उन्होंने अचानक पता लगा लिया हो। फिर वह चुपचाप धीरे-से पीछे हट गए और वहीं खड़े होकर ज़रा मुस्कराए और फिर दबे पाँव धीरे-धीरे वापस लौटे और अपने कमरे के सामने ओसारे के किनारे खड़े होकर आसमान को उत्सुकतापूर्वक निहारने लगे।


उनकी आदत छह, साढ़े छह बजे से पहले उठने की नहीं थी। लेकिन आज उठ गए थे, तो मन अप्रसन्न नहीं हुआ। आसमान में तारे अब भी चटक दिखाई दे रहे थे, और बाहर के पेड़ों को हिलाती हुई और खपड़े को स्पर्श करके आँगन में न मालूम किस दिशा से आती जाती हवा उनको आनंदित एवं उत्साहित कर रही थी। वह पुनः मुस्करा पड़े और उन्होंने धीरे-से फुसफुसाया, "चलो, अच्छा ही है।"


और अचानक उनमें न मालूम कहाँ का उत्साह आ गया। उन्होंने उसी समय ही दातौन करना शुरू कर दिया। इन कार्यों से निबटने के बाद भी अँधेरा ही रहा, तो बाल्टी में पानी भरा और उसे गुसलखाने में ले जाकर स्नान करने लगे। स्नान से निवृत्त होकर जब वह बाहर निकले, तो उनके शरीर में एक अपूर्व ताजगी तथा मन में एक अवर्णनीय उत्साह था।


यद्यपि उन्होंने अपने सभी कार्य चुपचाप करने की कोशिश की थी, तो भी देह दुर्बल होने के कारण कुछ खटपट हो गई, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पत्नी की नींद खुल गई। जमुना को तो पहले चोर-वोर का संदेह हुआ, लेकिन उसने झटपट आकर जब देखा, तो आश्चर्यचकित हो गई। शकलदीप बाबू आँगन में खड़े-खड़े आकाश को निहार रहे थे।


जमुना ने चिंतातुर स्वर में कहा, "इतनी जल्दी स्नान की जरूरत क्या थी? इतना सबेरे तो कभी भी नहीं उठा जाया जाता था? कुछ हो-हवा गया, तो?"


शकलदीप बाबू झेंप गए। झूठी हँसी हँसते हुए बोले, "धीरे-धीरे बोलो, भाई, बबुआ पढ़ रहे हैं।"


जमुना बिगड़ गई, "धीरे-धीरे क्यों बोलूँ, इसी लच्छन से परसाल बीमार पड़ जाया गया था।"


शकलदीप बाबू को आशंका हुई कि इस तरह बातचीत करने से तकरार बढ़ जाएगा, शोर-शराबा होगा, इसलिए उन्होंने पत्नी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वह पीछे घूम पड़े और अपने कमरे में आकर लालटेन जलाकर चुपचाप रामायण का पाठ करने लगे।


पूजा समाप्त करके जब वह उठे, तो उजाला हो गया था। वह कमरे से बाहर निकल आए। घर के बड़े लोग तो जाग गए थे, पर बच्चे अभी तक सोए थे। जमुना भंडार-घर में कुछ खटर-पटर कर रही थी। शकलदीप बाबू ताड़ गए और वह भंडार-घर के दरवाजे के सामने खड़े हो गए और कमर पर दोनों हाथ रखकर कुतूहल के साथ अपनी पत्नी को कुंडे में से चावल निकालते हुए देखते रहे।


कुछ देर बाद उन्होंने प्रश्न किया, "नारायण की अम्मा, आजकल तुम्हारा पूजा-पाठ नहीं होता क्या?" और झेंपकर वह मुस्कराए।


शकलदीप बाबू इसके पूर्व सदा राधास्वामियों पर बिगड़ते थे और मौका-बेमौका उनकी कड़ी आलोचना भी करते थे। इसको लेकर औरतों में कभी-कभी रोना-पीटना तक भी हो जाता था। इसलिए आज भी जब शकलदीप बाबू ने पूजा-पाठ की बात की, तो जमुना ने समझा कि वह व्यंग कर रहे हैं। उसने भी प्रत्युत्तर दिया, "हम लोगों को पूजा-पाठ से क्या मतलब? हमको तो नरक में ही जाना है। जिनको सरग जाना हो, वह करें!"


"लो बिगड़ गईं," शकलदीप बाबू मंद-मंद मुस्कराते हुए झट-से बोले, "अरे, मैं मजाक थोड़े कर रहा था! मैं बड़ी गलती पर था, राधास्वामी तो बड़े प्रभावशाली देवता हैं।"


जमुना को राधास्वामी को देवता कहना बहुत बुरा लगा और वह तिनककर बोली, "राधास्वामी को देवता कहते हैं? वह तो परमपिता परमेसर हैं, उनका लोक सबसे ऊपर है, उसके नीचे ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक आते हैं।"


"ठीक है, ठीक है, लेकिन कुछ पूजा-पाठ भी करोगी? सुनते हैं सच्चे मन से राधास्वामी की पूजा करने से सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।" शकलदीप बाबू उत्तर देकर काँपते होंठों में मुस्कराने लगे।


जमुना ने पुनः भुल-सुधार किया, "इसमें दिखाना थोड़े होता है; मन में नाम ले लिया जाता है। सभी मनोरथ बन जाते हैं और मरने के बाद आत्मा परमपिता में मिल जाती है। फिर चौरासी नहीं भुगतना पड़ता।"


शकलदीप बाबू ने सोत्साह कहा, "ठीक है, बहुत अच्छी बात है। जरा और सबेरे उठकर नाम ले लिया करो। सुबह नहाने से तबीयत दिन-भर साफ रहती है। कल से तुम भी शुरू कर दो। मैं तो अभागा था कि मेरी आँखें आज तक बंद रही। खैर, कोई बात नहीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, कल से तुम भी सवेरे चार बजे उठ जाना।"

उनको भय हुआ कि जमुना कहीं उनके प्रस्ताव का विरोध न करे, इसलिए इतना कहने के बाद वह पीछे घूमकर खिसक गए। लेकिन अचानक कुछ याद करके वह लौट पड़े। पास आकर उन्होंने पत्नी से मुस्कराते हुए पूछा, "बबुआ के लिए नाश्ते का इंतजाम क्या करोगी?"


"जो रोज होता है, वहीं होगा, और क्या होगा?" उदासीनतापूर्वक जमुना ने उत्तर दिया।


"ठीक है, लेकिन आज हलवा क्यों नहीं बना लेतीं? घर का बना सामान अच्छा होता है। और कुछ मेवे मँगा लो।"


"हलवे के लिए घी नहीं है। फिर इतने पैसे कहाँ हैं?" जमुना ने मजबूरी जाहिर की।


"पचास रुपए तो बचे हैं न, उसमें से खर्च करो। अन्न-जल का शरीर, लड़के को ठीक से खाने-पीने का न मिलेगा, तो वह इम्तहान क्या देगा? रुपए की चिंता मत करो, मैं अभी जिंदा हूँ!" इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका लगाकर हँस पड़े। वहाँ से हटने के पूर्व वह पत्नी को यह भी हिदायत देते गए, "एक बात और करो। तुम लड़के लोगों से डाँटकर कह देना कि वे बाहर के कमरे में जाकर बाजार न लगाएँ, नहीं तो मार पड़ेगी। हाँ, पढ़ने में बाधा पहुँचेगी। दूसरी बात यह कि बबुआ से कह देना, वह बाहर के कमरे में बैठकर इत्मीनान से पढ़ें, मैं बाहर सहन में बैठ लूँगा।"


शकलदीप बाबू सबेरे एक-डेढ़ घंटे बाहर के कमरे में बैठते थे। वहाँ वह मुवक्किलों के आने की प्रतीक्षा करते और उन्हें समझाते-बुझाते।


और वह उस दिन सचमुच ही मकान के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे, जहाँ पर्याप्त छाया रहती थी, एक मेज और कुर्सियाँ लगाकर बैठ गए। जान-पहचान के लोग वहाँ से गुजरे, तो उन्हें वहाँ बैठे देखकर आश्चर्य हुआ। जब सड़क से गुजरते हुए बब्बनलाल पेशकार ने उनसे पूछा कि 'भाई साहब, आज क्या बात है?' तो उन्होंने जोर से चिल्लाकर कहा कि 'भीतर बड़ी गर्मी है।' और उन्होंने जोकर की तरह मुँह बना दिया और अंत में ठहाका मारकर हँस पड़े, जैसे कोई बहुत बड़ा मज़ाक कर दिया हो।


शाम को जहाँ रोज वह पहले ही कचहरी से आ जाते थे, उस दिन देर से लौटे। उन्होंने पत्नी के हाथ में चार रुपए तो दिए ही, साथ ही दो सेब तथा कैंची सिगरेट के पाँच पैकेट भी बढ़ा दिए।


"सिगरेट क्या होगी?" जमुना ने साश्चर्य पूछा।


"तुम्हारे लिए है," शकलदीप बाबू ने धीरे-से कहा और दूसरी ओर देखकर मुस्कराने लगे, लेकिन उनका चेहरा शर्म से कुछ तमतमा गया।


जमुना ने माथे पर की साड़ी को नीचे खींचते हुए कहा, "कभी सिगरेट पी भी है कि आज ही पीऊँगी। इस उम्र में मज़ाक करते लाज नहीं आती?"


शकलदीप बाबू कुछ बोले नहीं और थोड़ा मुस्कराकर इधर-उधर देखने लगे। फिर गंभीर होकर उन्होंने दूसरी ओर देखते हुए धीरे-से कहा, "बबुआ को दे देना," और वह तुरंत वहाँ से चलते बने।


जमुना भौचक होकर कुछ देर उनको देखती रही, क्योंकि आज के पूर्व तो वह यही देखती आ रही थी कि नारायण के धूम्रपान के वह सख्त खिलाफ़ रहे हैं और इसको लेकर कई बार लड़के को डाँट-डपट चुके हैं।


उसकी समझ में कुछ न आया, तो वह यह कहकर मुस्करा पड़ी कि बुद्धि सठिया गई है।


नारायण दिन-भर पढ़ने-लिखने के बाद टहलने गया हुआ था। शकलदीप बाबू जल्दी से कपड़े बदलकर हाथ में झाडू ले बाहर के कमरे में जा पहुँचे। उन्होंने धीरे-धीरे कमरे को अच्छी तरह झाड़ा-बुहारा, इसके बाद नारायण की मेज को साफ किया तथा मेजपोश को जोर-जोर से कई बार झाड़-फटककर सफाई के साथ उस पर बिछा दिया। अंत में नारायण की चारपाई पर पड़े बिछौने को खोलकर उसमें की एक-एक चीज को झाड़-फटकारकर यत्नपूर्वक बिछाने लगे।


इतने में जमुना ने आकर देखा, तो मृदु स्वर में कहा, "कचहरी से आने पर यही काम रह गया है क्या? बिछौना रोज बिछ ही जाता है और कमरे की महरिन सफाई कर ही देती है।""अच्छा, ठीक है। मैं अपनी तबीयत से कर रहा हूँ, कोई जबरदस्ती थोड़ी है।" शकलदीप बाबू के मुख पर हल्के झेंप का भाव अंकित हो गया था और वह अपनी पत्नी की ओर न देखते हुए ऐसी आवाज में बोले, जैसे उन्होंने अचानक यह कार्य आरंभ कर दिया था- "और जब इतना कर ही लिया है, तो बीच में छोड़ने से क्या लाभ, पूरा ही कर लें।" कचहरी से आने के बाद रोज का उनका नियम यह था कि वह कुछ नाश्ता-पानी करके चारपाई पर लेट जाते थे। उनको अक्सर नींद आ जाती थी और वह लगभग आठ बजे तक सोते रहते थे। यदि नींद न भी आती, तो भी वह इसी तरह चुपचाप पड़े रहते थे।


"नाश्ता तैयार है," यह कहकर जमुना वहाँ से चली गई।


शकलदीप बाबू कमरे को चमाचम करने, बिछौने लगाने तथा कुर्सियों को तरतीब से सजाने के पश्चात आँगन में आकर खड़े हो गए और बेमतलब ठनककर हँसते हुए बोले, "अपना काम सदा अपने हाथ से करना चाहिए, नौकरों का क्या ठिकाना?"


लेकिन उनकी बात पर संभवतः किसी ने ध्यान नहीं दिया और न उसका उत्तर ही।


धीरे-धीरे दिन बीतते गए और नारायण कठिन परिश्रम करता रहा। कुछ दिनों से शकलदीप बाबू सायंकाल घर से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित शिवजी के एक मंदिर में भी जाने लगे थे। वह बहुत चलता मंदिर था और उसमें भक्तजनों की बहुत भीड़ होती थी। कचहरी से आने के बाद वह नारायण के कमरे को झाड़ते-बुहारते, उसका बिछौना लगाते, मेज़-कुर्सियाँ सजाते और अंत में नाश्ता करके मंदिर के लिए रवाना हो जाते। मंदिर में एक-डेढ़ घंटे तक रहते और लगभग दस बजे घर आते। एक दिन जब वह मंदिर से लौटे, तो साढ़े दस बज गए थे। उन्होंने दबे पाँव ओसारे में पाँव रखा और अपनी आदत के अनुसार कुछ देर तक मुस्कराते हुए झाँक-झाँककर कोठरी में नारायण को पढ़ते हुए देखते रहे। फिर भीतर जा अपने कमरे में छड़ी रखकर, नल पर हाथ-पैर धोकर,भोजन के लिए चैके में जाकर बैठ गए।


पत्नी ने खाना परोस दिया। शकलदीप बाबू ने मुँह में कौर चुभलाते हुए पूछा,"बबुआ को मेवे दे दिए थे?"

वह आज सायंकाल जब कचहरी से लौटे थे, तो मेवे लेते आए थे। उन्होंने मेवे को पत्नी के हवाले करते हुए कहा था कि इसे सिर्फ नारायण को ही देना, और किसी को नहीं।


जमुना को झपकी आ रही थी, लेकिन उसने पति की बात सुन ली, चौंककर बोली, "कहाँ? मेवा ट्रंक में रख दिया था, सोचा था, बबुआ घूमकर आएँगे तो चुपके से दे दूँगी। पर लड़के तो दानव-दूत बने हुए हैं, ओना-कोना, अँतरा-सँतरा, सभी जगह पहुँच जाते हैं। टुनटुन ने कहीं से देख लिया और उसने सारा-का सारा खा डाला।"


टुनटुन शकलदीप बाबू का सबसे छोटा बारह वर्ष का अत्यंत ही नटखट लड़का था।


"क्यों?" शकलदीप बाबू चिल्ला पड़े। उनका मुँह खुल गया था और उनकी जीभ पर रोटी का एक छोटा टुकड़ा दृष्टिगोचर हो रहा था। जमुना कुछ न बोली। अब शकलदीप बाबू ने गुस्से में पत्नी को मुँह चिढ़ाते हुए कहा, "खा गया, खा गया! तुम क्यों न खा गई! तुम लोगों के खाने के लिए ही लाता हूँ न? हूँ! खा गया!"


जमुना भी तिनक उठी, "तो क्या हो गया? कभी मेवा-मिश्री, फल-मूल तो उनको मिलता नहीं, बेचारे खुद्दी-चुन्नी जो कुछ मिलता है, उसी पर सब्र बाँधे रहते हैं। अपने हाथ से खरीदकर कभी कुछ दिया भी तो नहीं गया। लड़का ही तो है, मन चल गया, खा लिया। फिर मैंने उसे बहुत मारा भी, अब उसकी जान तो नहीं ले लूँगी।"

"अच्छा तो खाओ तुम और तुम्हारे लड़के! खूब मजे में खाओ! ऐसे खाने पर लानत है!" वह गुस्से से थर-थर काँपते हुए चिल्ला पड़े और फिर चौके से उठकर कमरे में चले गए।


जमुना भय, अपमान और गुस्से से रोने लगी। उसने भी भोजन नहीं किया और वहाँ से उठकर चारपाई पर मुँह ढँककर पड़ रही। लेकिन दूसरे दिन प्रातःकाल भी शकलदीप बाबू का गुस्सा ठंडा न हुआ और उन्होंने नहाने-धोने तथा पूजा-पाठ करने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि जब टुनटुन जागा, तो उन्होंने उसको अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि उसने मेवा क्यों खाया? जब उसको कोई उत्तर न सूझा और वह भक्कू बनकर अपने पिता की ओर देखने लगा, तो शकलदीप बाबू ने उसे कई तमाचे जड़ दिए।


डिप्टी-कलक्टरी की परीक्षा इलाहाबाद में होनेवाली थी और वहाँ रवाना होने के दिन आ गए। इस बीच नारायण ने इतना अधिक परिश्रम किया कि सभी आश्चर्यचकित थे। वह अट्ठारह-उन्नीस घंटे तक पढ़ता। उसकी पढ़ाई में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने पाती, बस उसे पढ़ना था। उसका कमरा साफ मिलता, उसका बिछौना बिछा मिलता, दोनों जून गाँव के शुद्ध घी के साथ दाल-भात,रोटी, तरकारी मिलती। शरीर की शक्ति तथा दिमाग की ताजगी को बनाए रखने के लिए नाश्ते में सबेरे हलवा-दूध तथा शाम को मेवे या फल। और तो और, लड़के की तबीयत न उचटे, इसलिए सिगरेट की भी समुचित व्यवस्था थी। जब सिगरेट के पैकेट खत्म होते, तो जमुना उसके पास चार-पाँच पैकेट और रख आती।


जिस दिन नारायण को इलाहाबाद जाना था, शकलदीप बाबू की छुट्टी थी और वे सबेरे ही घूमने निकल गए। वह कुछ देर तक कंपनी गार्डन में घूमते रहे,फिर वहाँ तबीयत न लगी, तो नदी के किनारे पहुँच गए। वहाँ भी मन न लगा, तो अपने परम मित्र कैलाश बिहारी मुख्तार के यहाँ चले गए। वहाँ बहुत देर तक गप-सड़ाका करते रहे, और जब गाड़ी का समय निकट आया, तो जल्दी-जल्दी घर आए।


गाड़ी नौ बजे खुलती थी। जमुना तथा नारायण की पत्नी निर्मला ने सबेरे ही उठकर जल्दी-जल्दी खाना बना लिया था। नारायण ने खाना खाया और सबको प्रणाम कर स्टेशन को चल पड़ा। शकलदीप बाबू भी स्टेशन गए।


नारायण को विदा करने के लिए उसके चार-पाँच मित्र भी स्टेशन पर पहुँचे थे। जब तक गाड़ी नहीं आई थी, नारायण प्लेटफार्म पर उन मित्रों से बातें करता रहा। शकलदीप बाबू अलग खड़े इधर-उधर इस तरह देखते रहे, जैसे नारायण से उनका कोई परिचय न हो। और जब गाड़ी आई और नारायण अपने पिता तथा मित्रों के सहयोग से गाड़ी में पूरे सामान के साथ चढ़ गया, तो शकलदीप बाबू वहाँ से धीरे-से खिसक गए और व्हीलर के बुकस्टाल पर जा खड़े हुए। बुकस्टाल का आदमी जान-पहचान का था, उसने नमस्कार करके पूछा, "कहिए, मुख्तार साहब, आज कैसे आना हुआ?"


शकलदीप बाबू ने संतोषपूर्वक मुस्कराते हुए उत्तर दिया, "लड़का इलाहाबाद जा रहा है, डिप्टी-कलक्टरी का इम्तहान देने। शाम तक पहुँच जाएगा। ड्योढ़े दर्जे के पास जो डिब्बा है न, उसी में है। नीचे जो चार-पाँच लड़के खड़े हैं, वे उसके मित्र है। सोचा, भाई हम लोग बूढ़े ठहरे, लड़के इम्तहान-विम्तहान की बात कर रहे होंगे, क्या समझेंगे, इसलिए इधर चला आया।" उनकी आँखे हास्य से संकुचित हो गईं।


वहाँ वह थोड़ी देर तक रहे। इसके बाद जाकर घड़ी में समय देखा, कुछ देर तक तारघर के बाहर तार बाबू को खटर-पटर करते हुए निहारा और फिर वहाँ से हटकर रेलगाड़ियों के आने-जाने का टाइम-टेबुल पढ़ने लगे। लेकिन उनका ध्यान संभवतः गाड़ी की ओर ही था, क्योंकि जब ट्रेन खुलने की घंटी बजी, तो वहाँ से भागकर नारायण के मित्रों के पीछे आ खड़े हुए।


नारायण ने जब उनको देखा, तो उसने झटपट नीचे उतरकर पैर छूए। "खुश रहो, बेटा, भगवान तुम्हारी मनोकामना पूरी करे!" उन्होंने लड़के से बुदबुदाकर कहा और दूसरी ओर देखने लगे।


नारायण बैठ गया और अब गाड़ी खुलने ही वाली थी। अचानक शकलदीप बाबू का दाहिना हाथ अपने कोट की जेब से कोई चीज लगभग बाहर निकाल ली, और वह कुछ आगे भी बढ़े, लेकिन फिर न मालूम क्या सोचकर रुक गए। उनका चेहरा तमतमा-सा गया और जल्दीबाजी में वह इधर-उधर देखने लगे। गाड़ी सीटी देकर खुल गई तो शकलदीप बाबू चैंक उठे। उन्होंने जेब से वह चीज निकालकर मुट्ठी में बाँध ली और उसे नारायण को देने के लिए दौड़ पड़े। वह दुर्बल तथा बूढ़े आदमी थे, इसलिए उनसे तेज क्या दौड़ा जाता, वह पैरों में फुर्ती लाने के लिए अपने हाथों को इस तरह भाँज रहे थे, जैसे कोई रोगी, मरियल लड़का अपने साथियों के बीच खेल-कूद के दौरान कोई हल्की-फुल्की शरारत करने के बाद तेज़ी से दौड़ने के लिए गर्दन को झुकाकर हाथों को चक्र की भाँति घुमाता है। उनके पैर थप-थप की आवाज के साथ प्लेटफार्म पर गिर रहे थे, और उनकी हरकतों का उनके मुख पर कोई विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, बस यही मालूम होता कि वह कुछ पेरशान हैं। प्लेटफार्म पर एकत्रित लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो गया। कुछ लोगों ने मौज में आकर जोर से ललकारा, कुछ ने किलकारियाँ मारीं और कुछ लोगों ने दौड़ के प्रति उनकी तटस्थ मुद्रा को देखकर बेतहाशा हँसना आरंभ किया। लेकिन यह उनका सौभाग्य ही था कि गाड़ी अभी खुली ही थी और स्पीड में नहीं आई थी। परिणामस्वरूप उनका हास्यजनक प्रयास सफल हुआ और उन्होंने डिब्बे के सामने पहुँचकर उत्सुक तथा चिंतित मुद्रा में डिब्बे से सिर निकालकर झाँकते हुए नारायण के हाथ में एक पुड़िया देते हुए कहा, "बेटा, इसे श्रद्धा के साथ खा लेना, भगवान शंकर का प्रसाद है।"


पुड़िया में कुछ बताशे थे, जो उन्होंने कल शाम को शिवजी को चढ़ाए थे और जिसे पता नहीं क्यों, नारायण को देना भूल गए थे। नारायण के मित्र कुतूहल से मुस्कराते हुए उनकी ओर देख रहे थे, और जब वह पास आ गए, तो एक ने पूछा, "बाबू जी, क्या बात थी, हमसे कह देते।" शकलदीप बाबू यह कहकर कि, "कोई बात नहीं, कुछ रुपए थे, सोचा, मैं ही दे दूँ, तेजी से आगे बढ़ गए।"


परीक्षा समाप्त होने के बाद नारायण घर वापस आ गया। उसने सचमुच पर्चे बहुत अच्छे किए थे और उसने घरवालों से साफ-साफ कह दिया कि यदि कोई बेईमानी न हुई, तो वह इंटरव्यू में अवश्य बुलाया जाएगा। घरवालों की बात तो दूसरी थी, लेकिन जब मुहल्ले और शहर के लोगों ने यह बात सुनी, तो उन्होंने विश्वास नहीं किया। लोग व्यंग में कहने लगे, हर साल तो यही कहते हैं बच्चू! वह कोई दूसरे होते हैं, जो इंटरव्यू में बुलाए जाते हैं!


लेकिन बात नारायण ने झूठ नहीं कही थी, क्योंकि एक दिन उसके पास सूचना आई कि उसको इलाहाबाद में प्रादेशिक लोक सेवा आयोग के समक्ष इंटरव्यू के लिए उपस्थित होना है। यह समाचार बिजली की तरह सारे शहर में फैल गया। बहुत साल बाद इस शहर से कोई लड़का डिप्टी-कलक्टरी के इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। लोगों में आश्चर्य का ठिकाना न रहा।


सायंकाल कचहरी से आने पर शकलदीप बाबू सीधे आँगन में जा खड़े हो गए और जोर से ठठाकर हँस पड़े। फिर कमरे में जाकर कपड़े उतारने लगे। शकलदीप बाबू ने कोट को खूँटी पर टाँगते हुए लपककर आती हुई जमुना से कहा, "अब करो न राज! हमेशा शोर मचाए रहती थी कि यह नहीं है, वह नहीं है! यह मामूली बात नहीं है कि बबुआ इंटरव्यू में बुलाए गए हैं, आया ही समझो!"


"जब आ जाएँ, तभी न," जमुना ने कंजूसी से मुस्कराते हुए कहा। शकलदीप बाबू थोड़ा हँसते हुए बोल, "तुमको अब भी संदेह है? लो, मैं कहता हूँ कि बबुआ जरूर आएँगे, जरूर आएँगे! नहीं आए, तो मैं अपनी मूँछ मुड़वा दूँगा। और कोई कहे या न कहे, मैं तो इस बात को पहले से ही जानता हूँ। अरे, मैं ही क्यों, सारा शहर यही कहता है। अंबिका बाबू वकील मुझे बधाई देते हुए बोले, 'इंटरव्यू में बुलाए जाने का मतलब यह है कि अगर इंटरव्यू थोड़ा भी अच्छा हो गया, तो चुनाव निश्चित है।' मेरी नाक में दम था, जो भी सुनता, बधाई देने चला आता।"


"मुहल्ले के लड़के मुझे भी आकर बधाई दे गए हैं। जानकी, कमल और गौरी तो अभी-अभी गए हैं। जमुना ने स्वप्निल आँखों से अपने पति को देखते हुए सूचना दी।"


"तो तुम्हारी कोई मामूली हस्ती है! अरे, तुम डिप्टी-कलक्टर की माँ हो न,


जी!" इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका मारकर हँस पड़े। जमुना कुछ नहीं बोली, बल्कि उसने मुस्की काटकर साड़ी का पल्ला सिर के आगे थोड़ा और खींचकर मुँह टेढ़ा कर लिया। शकलदीप बाबू ने जूते निकालकर चारपाई पर बैठते हुए धीरे-से कहा, "अरे भाई, हमको-तुमको क्या लेना है, एक कोने में पड़कर रामनाम जपा करेंगे। लेकिन मैं तो अभी यह सोच रहा हूँ कि कुछ साल तक और मुख्तारी करूँगा। नहीं, यही ठीक रहेगा।" उन्होंने गाल फुलाकर एक-दो बार मूँछ पर ताव दिए।


जमुना ने इसका प्रतिवाद किया, "लड़का मानेगा थोड़े, खींच ले जाएगा। हमेशा यह देखकर उसकी छाती फटती रहती है कि बाबू जी इतनी मेहनत करते हैं और वह कुछ भी मदद नहीं करता।"


"कुछ कह रहा था क्या?" शकलदीप बाबू ने धीरे-से पूछा और पत्नी की ओर न देखकर दरवाजे के बाहर मुँह बनाकर देखने लगे।


जमुना ने आश्वासन दिया, "मैं जानती नहीं क्या? उसका चेहरा बताता है। बाप को इतना काम करते देखकर उसको कुछ अच्छा थोड़े लगता है!" अंत में उसने नाक सुड़क लिए।


नारायण पंद्रह दिन बाद इंटरव्यू देने गया। और उसने इंटरव्यू भी काफी अच्छा किया। वह घर वापस आया, तो उसके हृदय में अत्यधिक उत्साह था, और जब उसने यह बताया कि जहाँ और लड़कों का पंद्रह-बीस मिनट तक ही इंटरव्यू हुआ, उसका पूरे पचास मिनट तक इंटरव्यू होता रहा और उसने सभी प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर दिए, तो अब यह सभी ने मान लिया कि नारायण का लिया जाना निश्चित है।


दूसरे दिन कचहरी में फिर वकीलों और मुख्तारों ने शकलदीप बाबू को बधाइयाँ दीं और विश्वास प्रकट किया कि नारायण अवश्य चुन लिया जाएगा। शकलदीप बाबू मुस्कराकर धन्यवाद देते और लगे हाथों नारायण के व्यक्तिगत जीवन की एक-दो बातें भी सुना देते और अंत में सिर को आगे बढ़ाकर फुसफुसाहट में दिल का राज प्रकट करते, "आपसे कहता हूँ, पहले मेरे मन में शंका थी, शंका क्या सोलहों आने शंका थी, लेकिन आप लोगों की दुआ से अब वह दूर हो गई है।"


जब वह घर लौटे, तो नारायण, गौरी और कमल दरवाजे के सामने खड़े बातें कर रहे थे। नारायण इंटरव्यू के संबंध में ही कुछ बता रहा था। वह अपने पिता जी को आता देखकर धीरे-धीरे बोलने लगा। शकलदीप बाबू चुपचाप वहाँ से गुजर गए, लेकिन दो-तीन गज ही आगे गए होंगे कि गौरी कि आवाज उनको सुनाई पड़ी, "अरे तुम्हारा हो गया, अब तुम मौज करो!" इतना सुनते की शकलदीप बाबू घूम पड़े और लड़कों के पास आकर उन्होंने पूछा, "क्या?" उनकी आँखें संकुचित हो गई थीं और उनकी मुद्रा ऐसी हो गई थी, जैसे किसी महफिल में जबरदस्ती घुस आए हों।


लड़के एक-दूसरे को देखकर शिष्टतापूर्वक होंठों में मुस्कराए। फिर गौरी ने अपने कथन को स्पष्ट किया, "मैं कह रहा था नारायण से, बाबू जी, कि उनका चुना जाना निश्चित है।"


शकलदीप बाबू ने सड़क से गुजरती हुई एक मोटर को गौर से देखने के बाद धीरे-धीरे कहा, "हाँ, देखिए न, जहाँ एक-से-एक धुरंधर लड़के पहुँचते हैं, सबसे तो बीस मिनट ही इंटरव्यू होता है, पर इनसे पूरे पचास मिनट! अगर नहीं लेना होता, तो पचास मिनट तक तंग करने की क्या जरूरत थी, पाँच-दस मिनट पूछताछ करके...."

गौरी ने सिर हिलाकर उनके कथन का समर्थन किया और कमल ने कहा, "पहले का जमाना होता, तो कहा भी नहीं जा सकता, लेकिन अब तो बेईमानी-बेईमानी उतनी नहीं होती होगी।"


शकलदीप बाबू ने आँखें संकुचित करके हल्की-फुल्की आवाज में पूछा, "बेईमानी नहीं होती न?"


"हाँ, अब उतनी नहीं होती। पहले बात दूसरी थी। वह जमाना अब लद गया।" गौरी ने उत्तर दिया।


शकलदीप बाबू अचानक अपनी आवाज पर जोर देते हुए बोले, "अरे, अब कैसी बेईमानी साहब, गोली मारिए, अगर बेईमानी ही करनी होती, तो इतनी देर तक इनका इंटरव्यू होता? इंटरव्यू में बुलाया ही न होता और बुलाते भी तो चार-पाँच मिनट पूछताछ करके विदा कर देते।"


इसका किसी ने उत्तर नहीं दिया, तो वह मुस्कराते हुए घूमकर घर में चले गए।


घर में पहुँचने पर जमुना से बोले, "बबुआ अभी से ही किसी अफ़सर की तरह लगते हैं। दरवाजे पर बबुआ, गौरी और कमल बातें कर रहे हैं। मैंने दूर ही से गौर किया, जब नारायण बाबू बोलते हैं, तो उनके बोलने और हाथ हिलाने से एक अजीब ही शान टपकती है। उनके दोस्तों में ऐसी बात कहाँ?"


"आज दोपहर में मुझे कह रहे थे कि तुझे मोटर में घुमाऊँगा।" जमुना ने खुशखबरी सुनाई।


शकलदीप बाबू खुश होकर नाक सुड़कते हुए बोले, "अरे, तो उसको मोटर की कमी होगी, घूमना न जितना चाहना।" वह सहसा चुप हो गए और खोए-खोए इस तरह मुस्कराने लगे, जैसे कोई स्वादिष्ट चीज खाने के बाद मन-ही-मन उसका मजा ले रहे हों।


कुछ देर बाद उन्होंने पत्नी से प्रश्न किया, "क्या कह रहा था, मोटर में घुमाऊँगा?


जमुना ने फिर वही बात दोहरा दी।


शकलदीप बाबू ने धीरे-से दोनों हाथों से ताली बजाते हुए मुस्कराकर कहा, "चलो, अच्छा है।" उनके मुख पर अपूर्व स्वप्निल संतोष का भाव अंकित था।


सात-आठ दिनों में नतीजा निकलने का अनुमान था। सभी को विश्वास हो गया था कि नारायण ले लिया जाएगा और सभी नतीजे की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे।


अब शकलदीप बाबू और भी व्यस्त रहने लगे। पूजा-पाठ का उनका कार्यक्रम पूर्ववत जारी था। लोगों से बातचीत करने में उनको काफी मजा आने लगा और वह बातचीत के दौरान ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देते कि लोगों को कहना पड़ता कि नारायण अवश्य ही ले लिया जाएगा। वह अपने घर पर एकत्रित नारायण तथा उसके मित्रों की बातें छिपकर सुनते और कभी-कभी अचानक उनके दल में घुस जाते तथा जबरदस्ती बात करने लगते। कभी-कभी नारायण को अपने पिता की यह हरकत बहुत बुरी लगती और वह क्रोध में दूसरी ओर देखने लगता। रात में शकलदीप बाबू चैंककर उठ बैठते और बाहर आकर कमरे में लड़के को सोते हुए देखने लगते या आँगन में खड़े होकर आकाश को निहारने लगते।


एक दिन उन्होंने सबेरे ही सबको सुनाकर जोर से कहा, "नारायण की माँ, मैंने आज सपना देखा है कि नारायण बाबू डिप्टी-कलक्टर हो गए।"


जमुना रसोई के बरामदे में बैठी चावल फटक रही थी और उसी के पास नारायण की पत्नी, निर्मला, घूँघट काढ़े दाल बीन रही थी।


जमुना ने सिर उठाकर अपने पति की ओर देखते हुए प्रश्न किया, "सपना सबेरे दिखाई पड़ा था क्या?"


"सबेरे के नहीं तो शाम के सपने के बारे में तुमसे कहने आऊँगा? अरे, एकदम ब्राह्ममुहूर्त में देखा था! देखता हूँ कि अखबार में नतीजा निकल गया है और उसमें नारायण बाबू का भी नाम हैं अब यह याद नहीं कि कौन नंबर था, पर इतना कह सकता हूँ कि नाम काफी ऊपर था।"


"अम्मा जी, सबेरे का सपना तो एकदम सच्चा होता है न!" निर्मला ने धीरे-से जमुना से कहा।


मालूम पड़ता है कि निर्मला की आवाज शकलदीप बाबू ने सुन ली, क्योंकि उन्होंने विहँसकर प्रश्न किया, "कौन बोल रहा है, डिप्टाइन हैं क्या?" अंत में वह ठहाका मारकर हँस पड़े।


"हाँ, कह रही हैं कि सवेरे का सपना सच्चा होता है। सच्चा होता ही है।" जमुना ने मुस्कराकर बताया।


निर्मला शर्म से संकुचित हो गई। उसने अपने बदन को सिकोड़ तथा पीठ को नीचे झुकाकर अपने मुँह को अपने दोनों घुटनों के बीच छिपा लिया।


अगले दिन भी सबेरे शकलदीप बाबू ने घरवालों को सूचना दी कि उन्होंने आज भी हू-ब-हू वैसा ही सपना देखा है।


जमुना ने अपनी नाक की ओर देखते हुए कहा, "सबेरे का सपना तो हमेशा ही सच्चा होता है। जब बहू को लड़का होनेवाला था, मैंने सबेरे-सबेरे सपना देखा कि कोई सरग की देवी हाथ में बालक लिए आसमान से आँगन में उतर रही है। बस, मैंने समझ लिया कि लड़का ही है। लड़का ही निकला।"


शकलदीप बाबू ने जोश में आकर कहा, "और मान लो कि झूठ है, तो यह सपना एक दिन दिखाई पड़ता, दूसरे दिन भी हू-ब-हू वहीं सपना क्यों दिखाई देता, फिर वह भी ब्राह्ममुहूर्त में ही!"


"बहू ने भी ऐसा ही सपना आज सबेरे देखा है!"


"डिप्टाइन ने भी?" शकलदीप बाबू ने मुस्की काटते हुए कहा।


"हाँ, डिप्टाइन ने ही। ठीक सबेरे उन्होंने देखा कि एक बँगले में हम लोग रह रहे हैं और हमारे दरवाजे पर मोटर खड़ी है।" जमुना ने उत्तर दिया।


शकलदीप बाबू खोए-खोए मुस्कराते रहे। फिर बोले, "अच्छी बात है, अच्छी बात है।"


एक दिन रात को लगभग एक बजे शकलदीप बाबू ने उठकर पत्नी को जगाया और उसको अलग ले जाते हुए बेशर्म महाब्राह्मण की भाँति हँसते हुए प्रश्न किया, "कहो भाई, कुछ खाने को होगा? बहुत देर से नींद ही नहीं लग रही है, पेट कुछ माँग रहा है। पहले मैंने सोचा, जाने भी दो, यह कोई खाने का समय है, पर इससे काम बनते न दिखा, तो तुमको जगाया। शाम को खाया था, सब पच गया।"


जमुना अचंभे के साथ आँखें फाड़-फाड़कर अपने पति को देख रही थी। दांपत्य-जीवन के इतने दीर्घकाल में कभी भी, यहाँ तक कि शादी के प्रारंभिक दिनों में भी, शकलदीप बाबू ने रात में उसको जगाकर कुछ खाने को नहीं माँगा था। वह झुँझला पड़ी और उसने असंतोष व्यक्त किया, "ऐसा पेट तो कभी भी नहीं था। मालूम नहीं, इस समय रसोई में कुछ है या नहीं।"


शकलदीप बाबू झेंपकर मुस्कराने लगे।


एक-दो क्षण बाद जमुना ने आँखे मलकर पूछा, "बबुआ के मेवे में से थोड़ा दूँ क्या?"


शकलदीप बाबू झट-से बोले, "अरे, राम-राम! मेवा तो, तुम जानती हो, मुझे बिलकुल पसंद नहीं। जाओ, तुम सोओ, भूख-वूख थोड़े है, मजाक किया था।"


यह कहकर वह धीरे-से अपने कमरे में चले गए। लेकिन वह लेटे ही थे कि जमुना कमरे में एक छिपुली में एक रोटी और गुड़ लेकर आई। शकलदीप बाबू हँसते हुए उठ बैठे।


शकलदीप बाबू पूजा-पाठ करते, कचहरी जाते, दुनिया-भर के लोगों से दुनिया-भर की बातचीत करते, इधर-उधर मटरगश्ती करते और जब खाली रहते, तो कुछ-न-कुछ खाने को माँग बैठते। वह चटोर हो गए और उनके जब देखो, भूख लग जाती। इस तरह कभी रोटी-गुड़ खा लेते, कभी आलू भुनवाकर चख लेते और कभी हाथ पर चीनी लेकर फाँक जाते। भोजन में भी वह परिवर्तन चाहने लगे। कभी खिचड़ी की फरमाइश कर देते, कभी सत्तू-प्याज की, कभी सिर्फ रोटी-दाल की, कभी मकुनी की और कभी सिर्फ दाल-भात की ही। उसका समय कटता ही न था और वह समय काटना चाहते थे।


इस बदपरहेजी तथा मानसिक तनाव का नतीजा यह निकला कि वह बीमार पड़ गए। उनको बुखार तथा दस्त आने लगे। उनकी बीमारी से घर के लोगों को बड़ी चिंता हुई।


जमुना ने रुआँसी आवाज में कहा, "बार-बार कहती थी कि इतनी मेहनत न कीजिए, पर सुनता ही कौन है? अब भोगना पड़ा न!"


पर शकलदीप बाबू पर इसका कोई असर न हुआ। उन्होंने बात उड़ा दी-- "अरे, मैं तो कचहरी जानेवाला था, पर यह सोचकर रुक गया कि अब मुख्तारी तो छोड़नी ही है, थोड़ा आराम कर लें।"


"मुख्तारी जब छोड़नी होगी, होगी, इस समय तो दोनों जून की रोटी-दाल का इंतजाम करना है।" जमुना ने चिंता प्रकट की।


अरे, तुम कैसी बात करती हो? बीमारी-हैरानी तो सबको होती है, मैं मिट्टी का ढेला तो हूँ नहीं कि गल जाऊँगा। बस, एक-आध दिन की बात हैं अगर बीमारी सख्त होती, तो मैं इस तरह टनक-टनककर बोलता?" शकलदीप बाबू ने समझाया और अंत में उनके होंठों पर एक क्षीण मुस्कराहट खेल गई।


वह दिन-भर बेचैन रहे। कभी लेटते, कभी उठ बैठते और कभी बाहर निकलकर टहलने लगते। लेकिन दुर्बल इतने हो गए थे कि पाँच-दस कदम चलते ही थक जाते और फिर कमरे में आकर लेटे रहते। करते-करते शाम हुई और जब शकलदीप बाबू को यह बताया गया कि कैलाशबिहारी मुख्तार उनका समाचार लेने आए हैं, तो वह उठ बैठे और झटपट चादर ओढ़, हाथ में छड़ी ले पत्नी के लाख मना करने पर भी बाहर निकल आए। दस्त तो बंद हो गया था, पर बुखार अभी था और इतने ही समय में वह चिड़चिड़े हो गए थे।


कैलाशबिहारी ने उनको देखते ही चिंतातुर स्वर में कहा, "अरे, तुम कहाँ बाहर आ गए, मुझे ही भीतर बुला लेते।"


शकलदीप बाबू चारपाई पर बैठ गए और क्षीण हँसी हँसते हुए बोले, "अरे, मुझे कुछ हुआ थोड़े हैं सोचा, आराम करने की ही आदत डालूँ।" यह कहकर वह अर्थपूर्ण दृष्टि से अपने मित्र को देखकर मुस्कराने लगे।


सब हाल-चाल पूछने के बाद कैलाशबिहारी ने प्रश्न किया, "नारायण बाबू कहीं दिखाई नहीं दे रहे, कहीं घूमने गए हैं क्या?"


शकलदीप बाबू ने बनावटी उदासीनता प्रकट करते हुए कहा, "हाँ, गए होंगे कहीं, लड़के उनको छोड़ते भी तो नहीं, कोई-न-कोई आकर लिवा जाता है।"


कैलाशबिहारी ने सराहना की, "खूब हुआ, साहब! मंै भी जब इस लड़के को देखता था, दिल में सोचता था कि यह आगे चलकर कुछ-न-कुछ जरूर होगा। वह तो, साहब, देखने से ही पता लग जाता है। चाल में और बोलने-चालने के तरीके में कुछ ऐसा है कि... चलिए, हम सब इस माने में बहुत भाग्यशाली हैं।"


शकलदीप बाबू इधर-उधर देखने के बाद सिर को आगे बढ़ाकर सलाह-मशविरे की आवाज में बोले, "अरे भाई साहब, कहाँ तक बताऊँ अपने मुँह से क्या कहना, पर ऐसा सीधा-सादा लड़का तो मैंने देखा नहीं, पढ़ने-लिखने का तो इतना शौक कि चौबीसों घंटे पढ़ता रहे। मुँह खोलकर किसी से कोई भी चीज़ माँगता नहीं।"


कैलाशबिहारी ने भी अपने लड़के की तारीफ़ में कुछ बातें पेश कर दीं, "लड़के तो मेरे भी सीधे हैं, पर मझला लड़का शिवनाथ जितना गऊ है, उतना कोई नहीं। ठीक नारायण बाबू ही की तरह है!"


"नारायण तो उस जमाने का कोई ऋषि-मुनि मालूम पड़ता है," शकलदीप बाबू ने गंभीरतापूर्वक कहा, "बस, उसकी एक ही आदत है। मैं उसकी माँ को मेवा दे देता हूँ और नारायण रात में अपनी माँ को जगाकर खाता है। भली-बुरी उसकी बस एक यही आदत है। अरे भैया, तुमसे बताता हूँ, लड़कपन में हमने इसका नाम पन्नालाल रखा था, पर एक दिन एक महात्मा घूमते हुए हमारे घर आए। उन्होंने नारायण का हाथ देखा और बोले, इसका नाम पन्नालाल-सन्नालाल रखने की जरूरत नहीं, बस आज से इसे नारायण कहा करो, इसके कर्म में राजा होना लिखा है। पहले जमाने की बात दूसरी थी, लेकिन आजकल राजा का अर्थ क्या है? डिप्टी-कलक्टर तो एक अर्थ में राजा ही हुआ!" अंत में आँखें मटकाकर उन्होंने मुस्कराने की कोशिश की, पर हाँफने लगे।


दोनों मित्र बहुत देर तक बातचीत करते रहे, और अधिकांश समय वे अपने-अपने लड़कों का गुणगान करते रहे।


घर के लोगों को शकलदीप बाबू की बीमारी की चिंता थी। बुखार के साथ दस्त भी था, इसलिए वह बहुत कमजोर हो गए थे, लेकिन वह बात को यह कहकर उड़ा देते, "अरे, कुछ नहीं, एक-दो दिन में मैं अच्छा हो जाऊँगा।" और एक वैद्य की कोई मामूली, सस्ती दवा खाकर दो दिन बाद वह अच्छे भी हो गए, लेकिन उनकी दुर्बलता पूर्ववत थी।


जिस दिन डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा निकला, रविवार का दिन था।


शकलदीप बाबू सबेरे रामायण का पाठ तथा नाश्ता करने के बाद मंदिर चले गए। छुट्टी के दिनों में वह मंदिर पहले ही चले जाते और वहाँ दो-तीन घंटे, और कभी-कभी तो चार-चार घंटे रह जाते। वह आठ बजे मंदिर पहुँच गए। जिस गाड़ी से नतीजा आनेवाला था, वह दस बजे आती थी।


शकलदीप बाबू पहले तो बहुत देर तक मंदिर की सीढ़ी पर बैठकर सुस्ताते रहे, वहाँ से उठकर ऊपर आए, तो नंदलाल पांडे ने, जो चंदन रगड़ रहा था, नारायण के परीक्षाफल के संबंध में पूछताछ की। शकलदीप वहाँ पर खड़े होकर असाधारण विस्तार के साथ सबकुछ बताने लगे। वहाँ से जब उनको छुट्टी मिली, तो धूप काफी चढ़ गई थी। उन्होंने भीतर जाकर भगवान शिव के पिंड के समक्ष अपना माथा टेक दिया। काफी देर तक वह उसी तरह पड़े रहे। फिर उठकर उन्होंने चारों ओर घूम-घूमकर मंदिर के घंटे बजाकर मंत्रोच्चारण किए और गाल बजाए। अंत में भगवान के समक्ष पुनः दंडवत कर बाहर निकले ही थे कि जंगबहादुर सिंह मास्टर ने शिवदर्शनार्थ मंदिर में प्रवेश किया और उन्होंने शकलदीप बाबू को देखकर आश्चर्य प्रकट किया, "अरे, मुख्तार साहब! घर नहीं गए? डिप्टी-कलक्टरी का नतीजा तो निकल आया।"


शकलदीप बाबू का हृदय धक-से कर गया। उनके होंठ काँपने लगे और उन्होंने कठिनता से मुस्कराकर पूछा, "अच्छा, कब आया?"


जंगबहादुर सिंह ने बताया, "अरे, दस बजे की गाड़ी से आया। नारायण बाबू का नाम तो अवश्य है, लेकिन....." वह कुछ आगे न बोल सके।


शकलदीप बाबू का हृदय जोरों से धक-धक कर रहा था। उन्होंने अपने सूखे होंठों को जीभ से तर करते हुए अत्यंत ही धीमी आवाज में पूछा, "क्या कोई खास बात है?"


"कोई खास बात नहीं है। अरे, उनका नाम तो है ही, यह है कि ज़रा नीचे है। दस लड़के लिए जाएँगे, लेकिन मेरा ख्याल है कि उनका नाम सोलहवाँ-सत्रहवाँ पड़ेगा। लेकिन कोई चिंता की बात नहीं, कुछ लड़के को कलक्टरी में चले जाते हैं कुछ मेडिकल में ही नहीं आते, और इस तरह पूरी-पूरी उम्मीद है कि नारायण बाबू ले ही लिए जाएँगे।"


शकलदीप बाबू का चेहरा फक पड़ गया। उनके पैरों में जोर नहीं था और मालूम पड़ता था कि वह गिर जाएँगे। जंगबहादूर सिंह तो मंदिर में चले गए।


लेकिन वह कुछ देर तक वहीं सिर झुकाकर इस तरह खड़े रहे, जैसे कोई भूली बात याद कर रहे हों। फिर वह चैंक पड़े और अचानक उन्होंने तेजी से चलना शुरू कर दिया। उनके मुँह से धीमे स्वर में तेजी से शिव-शिव निकल रहा था। आठ-दस गज आगे बढ़ने पर उन्होंने चाल और तेज कर दी, पर शीघ्र ही बेहद थक गए और एक नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर हाँफने लगे।


चार-पाँच मिनट सुस्ताने के बाद उन्होंने फिर चलना शुरू कर दिया। वह छड़ी को उठाते-गिराते, छाती पर सिर गाड़े तथा शिव-शिव का जाप करते, हवा के हल्के झोंके से धीरे-धीरे टेढ़े-तिरछे उड़नेवाले सूखे पत्ते की भाँति डगमग-डगमग चले जा रहे थे। कुछ लोगों ने उनको नमस्ते किया, तो उन्होंने देखा नहीं, और कुछ लोगों ने उनको देखकर मुस्कराकर आपस में आलोचना-प्रत्यालोचना शुरू कर दी, तब भी उन्होंने कुछ नहीं देखा। लोगों ने संतोष से, सहानुभूति से तथा अफ़सोस से देखा, पर उन्होंने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उनको बस एक ही धुन थी कि वह किसी तरह घर पहुँच जाएँ।


घर पहुँचकर वह अपने कमरे में चारपाई पर धम-से बैठ गए। उनके मुँह से केवल इतना ही निकला, "नारायण की अम्माँ!"


सारे घर में मुर्दनी छाई हुई थी। छोटे-से आँगन में गंदा पानी, मिट्टी, बाहर से उड़कर आए हुए सूखे पत्ते तथा गंदे कागज पड़े थे, और नाबदान से दुर्गंध आ रही थी। ओसारे में पड़ी पुरानी बँसखट पर बहुत-से गंदे कपड़े पड़े थे और रसोईघर से उस वक्त भी धुआँ उठ-उठकर सारे घर की साँस को घोट रहा था।


कहीं कोई खटर-पटर नहीं हो रही थी और मालूम होता था कि घर में कोई है ही नहीं।


शीघ्र ही जमुना न मालूम किधर से निकलकर कमरे में आई और पति को देखते ही उसने घबराकर पूछा, "तबीयत तो ठीक है?"


शकलदीप बाबू ने झुँझलाकर उत्तर दिया, "मुझे क्या हुआ है, जी? पहले यह बताओ, नारायण जी कहाँ हैं?"

जमुना ने बाहर के कमरे की ओर संकेत करते हुए बताया, "उसी में पड़े है।, न कुछ बोलते हैं और न कुछ सुनते हैं। मैं पास गई, तो गुमसुम बने रहे। मैं तो डर गई हूँ।"


शकलदीप बाबू ने मुस्कराते हुए आश्वासन दिया, "अरे कुछ नहीं, सब कल्याण होगा, चिंता की कोई बात नहीं। पहले यह तो बताओ, बबुआ को तुमने कभी यह तो नहीं बताया था कि उनकी फीस तथा खाने-पीने के लिए मैंने 600 रुपए कर्ज लिए हैं। मैंने तुमको मना कर दिया था कि ऐसा किसी भी सूरत में न करना।"


जमुना ने कहा, "मैं ऐसी बेवकूफ थोड़े हूँ। लड़के ने एक-दो बार खोद-खोदकर पूछा था कि इतने रुपए कहाँ से आते हैं? एक बार तो उसने यहाँ तक कहा था कि यह फल-मेवा और दूध बंद कर दो, बाबू जी बेकार में इतनी फ़िजूलखर्ची कर रहे हैं। पर मैंने कह दिया कि तुमको फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं, तुम बिना किसी चिंता के मेहनत करो, बाबू जी को इधर बहुत मुकदमे मिल रहे हैं।"


शकलदीप बाबू बच्चे की तरह खुश होते हुए बोले, "बहुत अच्छा। कोई चिंता की बात नहीं। भगवान सब कल्याण करेंगे। बबुआ कमरे ही में हैं न?"


जमुना ने स्वीकृति से सिर लिया दिया।


शकलदीप बाबू मुस्कराते हुए उठे। उनका चेहरा पतला पड़ गया था, आँखे धँस गई थीं और मुख पर मूँछें झाडू की भाँति फरक रही थीं। वह जमुना से यह कहकर कि 'तुम अपना काम देखो, मैं अभी आया', कदम को दबाते हुए बाहर के कमरे की ओर बढ़े। उनके पैर काँप रहे थे और उनका सारा शरीर काँप रहा था, उनकी साँस गले में अटक-अटक जा रही थी।


उन्होंने पहले ओसारे ही में से सिर बढ़ाकर कमरे में झाँका। बाहरवाला दरवाजा और खिड़कियाँ बंद थीं, परिणामस्वरूप कमरे में अँधेरा था। पहले तो कुछ न दिखाई पड़ा और उनका हृदय धक-धक करने लगा। लेकिन उन्होंने थोड़ा और आगे बढ़कर गौर से देखा, तो चारपाई पर कोई व्यक्ति छाती पर दोनों हाथ बाँधे चित्त पढ़ा था। वह नारायण ही था। वह धीरे-से चोर की भाँति पैरों को दबाकर कमरे के अंदर दाखिल हुए।


उनके चेहरे पर अस्वाभाविक विश्वास की मुस्कराहट थिरक रही थी। वह मेज़ के पास पहुँचकर चुपचाप खड़े हो गए और अँधेरे ही में किताब उलटने-पुलटने लगे। लगभग डेढ़-दो मिनट तक वहीं उसी तरह खड़े रहने पर वह सराहनीय फुर्ती से घूमकर नीचे बैठक गए और खिसककर चारपाई के पास चले गए और चारपाई के नीचे झाँक-झाँककर देखने लगे, जैसे कोई चीज खोज रहे हों।


तत्पश्चात पास में रखी नारायण की चप्पल को उठा लिया और एक-दो क्षण उसको उलटने-पुलटने के पश्चात उसको धीरे-से वहीं रख दिया। अंत में वह साँस रोककर धीरे-धीरे इस तरह उठने लगे, जैसे कोई चीज खोजने आए थे, लेकिन उसमें असफल होकर चुपचाप वापस लौट रहे हों। खड़े होते समय वह अपना सिर नारायण के मुख के निकट ले गए और उन्होंने नारायण को आँखें फाड़-फाड़कर गौर से देखा। उसकी आँखे बंद थीं और वह चुपचाप पड़ा हुआ था, लेकिन किसी प्रकार की आहट, किसी प्रकार का शब्द नहीं सुनाई दे रहा था। शकलदीप बाबू एकदम डर गए और उन्होंने कांपते हृदय से अपना बायाँ कान नारायण के मुख के बिलकुल नजदीक कर दिया। और उस समय उनकी खुशी का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने अपने लड़के की साँस को नियमित रूप से चलते पाया।


वह चुपचाप जिस तरह आए थे, उसी तरह बाहर निकल गए। पता नहीं कब से, जमुना दरवाजे पर खड़ी चिंता के साथ भीतर झाँक रही थी। उसने पति का मुँह देखा और घबराकर पूछा, "क्या बात है? आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? मुझे बड़ा डर लग रहा है।"


शकलदीप बाबू ने इशारे से उसको बोलने से मना किया और फिर उसको संकेत से बुलाते हुए अपने कमरे में चले गए। जमुना ने कमरे में पहुँचकर पति को चिंतित एवं उत्सुक दृष्टि से देखा।


शकलदीप बाबू ने गद्गद् स्वर में कहा, "बबुआ सो रहे हैं।"


वह आगे कुछ न बोल सकें उनकी आँखें भर आई थीं। वह दूसरी ओर देखने लगे

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